रिपोर्टर: राजनिकांत पांडेय | प्रमुख संपादक, NewsX | दिनांक: 4 जुलाई 2025 | स्थान: मथुरा, उत्तर प्रदेश
भूमिका: इतिहास और आस्था का टकराव
भारत में धार्मिक स्थलों से जुड़े विवादों की सूची में अयोध्या, काशी और मथुरा विशेष स्थान रखते हैं। श्रीकृष्ण जन्मभूमि-शाही ईदगाह विवाद एक ऐसा ही मसला है जो आस्था, इतिहास और कानून के त्रिकोण में फंसा हुआ है। यह विवाद सिर्फ एक भूखंड या इमारत का नहीं, बल्कि दो समुदायों की धार्मिक भावनाओं और कानूनी अधिकारों की परिधि से जुड़ा है।
2025 में मथुरा जिला अदालत में सुनवाई के बाद इस विवाद पर एक बड़ा मोड़ आया, जब अदालत ने हिंदू पक्ष द्वारा दायर उस याचिका को खारिज कर दिया जिसमें मांग की गई थी कि शाही ईदगाह मस्जिद की भूमि को “विवादित संपत्ति” घोषित किया जाए। आइए विस्तार से समझते हैं यह मामला क्या है, अदालत ने क्या कहा, पक्षकारों की दलीलें क्या रहीं, और अब आगे क्या हो सकता है।
विवाद की पृष्ठभूमि: ऐतिहासिक घटनाक्रम
श्रीकृष्ण जन्मभूमि विवाद की जड़ें मुग़ल काल से जुड़ी हैं। ऐसा कहा जाता है कि वर्ष 1669 में मुग़ल शासक औरंगज़ेब ने मथुरा स्थित श्रीकृष्ण के मंदिर को नष्ट कर वहाँ शाही ईदगाह मस्जिद का निर्माण करवाया। हिंदू पक्ष का दावा है कि वह स्थान भगवान श्रीकृष्ण का वास्तविक जन्मस्थान है।
1951 में श्रीकृष्ण जन्मभूमि सेवा संस्थान की स्थापना हुई और 1968 में इस संस्थान तथा शाही ईदगाह ट्रस्ट के बीच एक समझौता हुआ, जिसके तहत दोनों पक्षों ने शांति पूर्ण सह-अस्तित्व का मार्ग चुना। उस समझौते के आधार पर शाही ईदगाह मस्जिद वहीं बनी रही। यह समझौता आज के विवाद का केंद्रबिंदु बना हुआ है।
अदालत में याचिका: क्या मांग थी?
वर्ष 2020 में श्रीकृष्ण विराजमान एवं अन्य याचिकाकर्ताओं की ओर से एक सिविल मुकदमा दायर किया गया जिसमें मांग की गई कि:
- 13.37 एकड़ जमीन जो कि कटरा केशव देव क्षेत्र में है, उसे विवादित घोषित किया जाए।
- 1968 में हुआ समझौता अवैध है, क्योंकि ट्रस्ट उस भूमि का वैध स्वामी नहीं था।
- ईदगाह मस्जिद को हटाया जाए और वहां श्रीकृष्ण मंदिर के पुनर्निर्माण की अनुमति दी जाए।
यह याचिका मूल रूप से भगवान श्रीकृष्ण विराजमान को प्रमुख पक्षकार बनाकर दायर की गई थी।
अदालत का आदेश: संपत्ति को विवादित घोषित करने से इनकार
मथुरा जिला अदालत के न्यायाधीश दीपक द्विवेदी ने अपने आदेश में स्पष्ट किया कि:
“मात्र धार्मिक आस्था और ऐतिहासिक विश्वास के आधार पर किसी संपत्ति को विवादित घोषित नहीं किया जा सकता। जब तक साक्ष्य और दस्तावेज न्यायालय के समक्ष पूरी तरह प्रस्तुत नहीं होते, तब तक ऐसी कोई घोषणा कानूनसम्मत नहीं होगी।”
अदालत ने यह भी जोड़ा कि याचिका समयपूर्व है और पूरी सुनवाई के बिना किसी निष्कर्ष पर पहुँचना जल्दबाजी होगी।
मुस्लिम पक्ष की दलीलें: कानून और दस्तावेजों पर ज़ोर
मुस्लिम पक्ष, जिसमें उत्तर प्रदेश सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड और शाही ईदगाह ट्रस्ट शामिल हैं, की ओर से प्रस्तुत दलीलों में निम्नलिखित बिंदु प्रमुख थे:
- 1968 का समझौता कानूनी रूप से वैध और पंजीकृत है। यह ट्रस्ट के अधिकार में ही हुआ था।
- Places of Worship Act, 1991 के तहत 15 अगस्त 1947 को धार्मिक स्थलों की जो स्थिति थी, उसे यथावत बनाए रखना अनिवार्य है।
- सुप्रीम कोर्ट के 2019 के अयोध्या फैसले में स्पष्ट किया गया कि यह कानून मथुरा और काशी जैसे मामलों पर लागू होता है।
- बार-बार एक ही विषय पर याचिका दायर करना न्यायिक प्रणाली का दुरुपयोग है।
हिंदू पक्ष की प्रतिक्रिया: कानूनी संघर्ष जारी रहेगा
याचिकाकर्ता पक्ष के प्रमुख वकील विष्णु शंकर जैन ने कहा:
“हम इस आदेश को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनौती देंगे। यह हमारी आस्था और सत्य के लिए संघर्ष है। 1968 का समझौता कानूनी रूप से त्रुटिपूर्ण था और इसे चुनौती देना हमारा अधिकार है।”
विश्व हिंदू परिषद, अखिल भारत हिंदू महासभा समेत कई हिंदू संगठनों ने फैसले पर असहमति जताते हुए कहा कि यह आस्था की हार नहीं है, बल्कि एक प्रक्रिया का हिस्सा है।
Places of Worship Act, 1991: कानूनी बाधा या संरक्षण?
यह कानून 1991 में पारित हुआ था और इसका उद्देश्य यह था कि स्वतंत्रता के समय से पूर्व भारत में जो धार्मिक स्थिति थी, उसे बदला न जाए। इसके अंतर्गत अयोध्या विवाद को छोड़कर सभी अन्य धार्मिक स्थलों को 15 अगस्त 1947 की स्थिति में बनाए रखने की बात कही गई है।
हिंदू पक्षकारों का तर्क है कि यह कानून असंवैधानिक है और इससे धार्मिक स्वतंत्रता का हनन होता है। इसके उलट मुस्लिम पक्ष इस कानून को कानूनी स्थायित्व और धार्मिक सौहार्द के लिए आवश्यक मानता है।
ऐतिहासिक तथ्य बनाम कानूनी प्रक्रिया
मामले की जड़ में दो धाराएं हैं – पहली, ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर यह दावा कि जन्मभूमि पर मस्जिद बनी है; दूसरी, यह कि यदि कानून किसी परिवर्तन की अनुमति नहीं देता, तो ऐतिहासिक अन्याय को कैसे सुधारा जाए?
वास्तव में, अदालतें सिर्फ ऐतिहासिक दृष्टिकोण के आधार पर निर्णय नहीं लेतीं, उन्हें विधिक प्रक्रिया, सबूत और संविधान के दायरे में रहकर फैसला देना होता है। यही कारण है कि अदालत ने अभी तक मस्जिद को हटाने या भूमि को विवादित घोषित करने जैसे किसी भी प्रत्यक्ष निर्णय से परहेज़ किया है।
आगे की संभावनाएं: उच्च न्यायालय और उससे ऊपर
अब यह मामला इलाहाबाद हाईकोर्ट जाएगा। वहाँ पूरी तरह से बहस और साक्ष्यों की समीक्षा होगी। अगर उच्च न्यायालय भी वर्तमान आदेश को बरकरार रखता है, तो याचिकाकर्ता सुप्रीम कोर्ट का रुख कर सकते हैं।
इस बीच, यह भी संभावना है कि केंद्र सरकार पर संसद में विशेष विधेयक लाने का दबाव बढ़े, जैसा राम मंदिर के समय हुआ था।
सामाजिक असर: आस्था, राजनीति और सौहार्द
ऐसे मामलों का असर सिर्फ अदालत तक सीमित नहीं होता। यह सामाजिक वातावरण, राजनीतिक विमर्श और धार्मिक सौहार्द पर भी सीधा असर डालते हैं।
राजनीतिक दल अक्सर ऐसे मुद्दों को चुनावी रणनीति में प्रयोग करते हैं। सोशल मीडिया पर भी इस मुद्दे को लेकर विभाजित राय देखने को मिली है – कुछ लोग अदालत के आदेश को न्यायसंगत मान रहे हैं, तो कुछ इसे धार्मिक आस्था के साथ विश्वासघात बता रहे हैं।
निष्कर्ष: संघर्ष अभी समाप्त नहीं हुआ
मथुरा का श्रीकृष्ण जन्मभूमि विवाद अभी निर्णायक स्थिति में नहीं पहुँचा है। अदालत का वर्तमान फैसला कानूनी प्रक्रिया के तहत है, लेकिन यह अंतिम नहीं है। उच्च न्यायालय और संभवतः सर्वोच्च न्यायालय तक इस मामले की यात्रा जारी रहेगी।
इस विवाद में आस्था, ऐतिहासिक साक्ष्य, राजनीतिक दबाव और कानूनी प्रतिबंध सब एक साथ उलझे हैं। इसका समाधान सिर्फ अदालत से नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना, संवैधानिक मूल्यों और शांतिपूर्ण संवाद के माध्यम से ही संभव है।